Thursday 5 February 2015

अश्वेत नारिवाद (Black Feminism)

अश्वेत नारीवाद का केन्द्रीय तर्क है कि वर्गीय, नस्लीय तथा लैंगिक शोषण अन्तरसंबंधित है । नारीवाद की प्रचलित धाराएं लैंगिक शोषण पर बात करते हुए नस्लीय वर्गीय शोषण को लगातार नजरअंदाज करती हैं । 1974 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि अश्वेत स्त्री की मुक्ति के पश्चात ही संपूर्ण मानव समाज की मुक्ति संभव है । लिंग, वर्ग तथा नस्ल आधारित शोषण को सम्यक रूप से समझे बिना तथा उनके विरूद्ध एकजुट हुए बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं । अश्वेत आंदोलन की आधारभूमि को तैयार करने में एलिस वॉकर केवुमेनिस्म के सिद्धान्त का महत्वपूर्ण योगदान है ।
एलिस वाकर 
      एलिस वाकर तथा अन्य नारीवादी विदुषियों ने यह जाहिर किया कि अश्वेत स्त्री के जीवनानुभव श्वेत, मध्यवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा न सिर्फ भिन्न हैं बल्कि उसके शोषण की परिस्थितियां भी अधिक जटिल हैं । अश्वेत स्त्री आंदोलन के उदय का कारण भी इसी तार्किक पहलू पर आधारित है कि श्वेत मध्यमवर्गीय, पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने नारीवाद की जिस धारा का नेतृत्व किया उसने वर्ग तथा नस्ल पर आधारित शोषण को तवज्जो नहीं दिया । पेट्रिशिय हिल कॉलिन्स ने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘फेमिनिस्ट थॉट ‘(1991) में अश्वेत नारीवाद को परिभाषित करते हुए कहा किइस नारीवाद को सैद्धान्तिकी देती हुई विदुषियों ने साधारण अश्वेत स्त्री के अनुभवों तथा उसके विचारों को शामिल करते हुए एक अलग किस्म को दृष्टि अपने, समुदाय तथा समाज के प्रति प्रदान की ।‘ अश्वेत नारीवाद का महत्वपूर्ण वैचारिक संबंध उत्तर औपनिवेशिक नारीवादीयों के साथ तथा तिसरी दुनिया के नारीवाद (दलित नारीवाद) के साथ भी बन रहा था । दोनों ही नारीवादी धाराएं अपनी स्वीकार्यता के लिए संघर्षरत थी । न सिर्फ इस पुरुष प्रधान संस्कृति में बल्कि पाश्चात्य नारीवादी खेमों में भी ।
      अश्वेत नारीवादी संगठनों का उदय 1970 के दशक में हुआ । नेशनल ब्लैक फेमिनिस्ट ऑरगनाइजेशन की स्थापना 1973 में हुई जिसमें नारीवादियों ने सत्ता संबंधों को प्रश्नांकित करते हुए अफ्रीकी तथा अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों द्वारा झेली जा रही हिंसा की परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिबद्धता जाहिर की । परंतु अंततः 1977 में इस संक्रीय संगठन ने काम करना बन्द कर दिया । द कॉमबाहो रिवर कलेक्टिव हमेशा अश्वेत समाजवादी नारीवादियों का एक महत्वपूर्ण संगठन बना रहा । बराबरा स्मिथ जो एक अश्वेत समलैंगिक समर्थक थीं, ने इस संगठन का नाम प्रस्तावित किया था ।
      वर्तमान अश्वेत नारीवाद एक राजनीतिक/सामाजिक आंदोलन के रूप में 1960 तथा 1970 के दशक के उन समस्त नागरिक अधिकार आंदोलनों तथा नारीवादी आंदोलन के प्रति विसम्मति से उपजा जिन्होंने उसके मुद्दों को मुख्य एजेंडे में शामिल नहीं किया था । मेरी एन वेदर जो अश्वेत नारीवाद की प्रबल समर्थक थी 1969 में एक रेडिकल नारीवादियों की पत्रिका नो मोर फन एण्ड गेम्स: ए जॉर्नल ऑफ फीमेल लिबरेशन में लिखती हैं: "दुनिया की सभी स्त्रियां शोषण की शिकार हैं यहाँ तक को श्वेत स्त्री भी । विशेष तौर पर गरीब श्वेत स्त्री तथा भारतीय, मैक्सिकन प्यूरिटोरिको की अश्वेत अमेरिका तथा अफ्रीकी स्त्रियां तीहरे किस्म के शोषण की शिकार है । परन्तु हम सभी स्त्री शोषण को सामान्य रूप से समझते हैं । इसका अर्थ है हमें सभी के साथ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी ताकि भिन्नता के बावजूद भी एक मंच पर खड़े होने की स्थितियां पैदा की जा सकें ।‘
      अश्वेत नारीवादीयों द्वारा दर्ज किया गया प्रतिरोध वस्तुतः दो दृष्टिकोणों का परिणाम है । पहला दृष्टिकोण यह मानता है कि दरअसल शोषित समूह स्वयं को शक्तिशाली समूहों के साथ जोड़ कर देखता है जिसके कारण उनके स्वयं के शोषण की कोई वैध व्याख्या उनके पास नहीं होती । दूसरा दृष्टिकोण यह मानता है कि शोषित समूह अपने शोषकों की अपेक्षा इंसानों की श्रेणी में नहीं आते इसलिए उनमें अपना दृष्टिकोण रखने की भी क्षमता नहीं होती है । दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूह द्वारा अपनी चेतना की अभिव्यक्ति को वर्चस्वशाली समूहों द्वारा स्वीकार्यता न मिलना उभरते हुए विचारों की प्रतिबद्धता को और सुदृढ़ करता है । खासतौर पर दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूहों में राजनीतिक कार्यक्षमता इसलिए मजबूती से नहीं उभर पाती क्योंकि उनमें अपनी शोषित स्थिति के प्रति चेतना का घोर अभाव होता है ।
      हालांकि अफ्रीकी महिलाएं न ही निष्क्रीय रुप से पीडा को झेलती हैं और ना ही अपनी सत्ता के लिए सक्रिय होती हैं । परिणामस्वरूप अश्वेत स्त्री अध्ययनों को होने वाले बौद्धिक कार्यों में यह स्पष्ट झलक मिलती है कि अश्वेत स्त्रियों का अपने द्वारा अपने शोषण के प्रति परिभाषित दृष्टिकोण है । दो अन्तरसंबंधित घटक इस दृष्टिकोण को परिभाषित करते हैं । पहला अश्वेत स्त्रियों की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियां उन्हें एक भिन्न प्रकार का जीवन अनुभव प्रदान करती हैं जो उनमें भौतिक यथार्थ को अन्य समूहों की अपेक्षा दुनिया को समझने की अलग दृष्टि प्रदान करता है । वे सभी सवेतनिक और अवेतनिक कार्य जो अश्वेत स्त्रियां करती है, वे समुदाय जिसका वे हिस्सा है तो वे सभी संबंध जो उनके जीवन में है,  अफ्रीकी महिलाओं को एक समूह के रूप में श्वेत मध्यमवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा अलग किस्म की दुनिया का अनुभव कराती है । दूसरा इस प्रकार के अनुभव अश्वेत स्त्रियों को भौतिक यथार्थ के प्रति भिन्न चेतना पैदा करते है ।
अर्थात् संक्षिप्त शब्दों में, अधीनस्थ समूह न सिर्फ एक भिन्न यथार्थ का अनुभव अपने शोषक समूह की अपेक्षा करता है बल्कि वह समूह उस भिन्न यथार्थ को वर्चस्वशाली समूहों की अपेक्षा अलग ढंग से व्याख्यायित भी करता है ।
  परंतु यह भी सत्य है कि एक अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण के अलग होने का यह अर्थ नहीं कि इसे पर्याप्त रूप से अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त में व्याख्यायित किया गया हो । पीटर बर्जर तथा थॉमस लॉकमॅन ने अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण तथा अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त में मध्य संबंध बताने का प्रयास किया है । अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त एक विस्तार के रूप में दूसरे स्तर के ज्ञान की बात करता है जबकि अश्वेत स्त्री का दृष्टिकोण प्रत्येक दिन के जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति है जो उस सैद्धान्तिकीकरण की आधारभूमि तैयार करता है । लेकिन, ये दोनों ही स्तर अन्तरसंबंधित हैं।
  अपनी ज्ञान परंपरा को वैधता दिलाने तथा उसे स्थापित करने के क्रम में अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त को तीन स्तर पर चुनौतियों का सामना करना है । पहला साधारण अश्वेत स्त्रीयों के बीच अपने स्द्धिान्तों के प्रति विश्वास पैदा करना। दूसरा अश्वेत विदुषी स्त्रियां जो सामान्यतः नारीवादी नहीं है, उनके बीच अपनी स्वीकार्यता हासिल करना तथा तीसरा अकादमिक जगत में यूरोकेन्द्रित पुरुषवादी राजनीतिक तथा ज्ञान मिमांसात्मक मुठभेड़ का सामना करना ।
   अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त इस महत्वपूर्ण संभावना को पैदा करता है कि अश्वेत स्त्रियां अपने विशेष ज्ञान का उत्पादन कर सकती हैं । इस प्रकार का भिन्न दृष्टिकोण अफ्रीकी, अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि वे अपने ज्ञान को महत्व देते हुए प्रचलित नारीवादी धाराओं में स्थान एवं स्वीकार्यता के लिए आवाज बुलंद करें । अश्वेत स्त्री के सांस्कृतिक तथा पारंपरिक विचारों को उठाते हुए अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त उनमें नये अर्थ भरता है तथा उसके प्रति चेतना जागृति का कार्य करता है । खासतौर पर इस प्रकार की व्याख्याएं अश्वेत अफ्रीकी तथा अमेरिकी स्त्रियों को प्रतिरोध का एक नया तरीका सिखाती है जिसके सहारे वे सभी प्रकार के वर्चस्वों के विरूद्ध संघर्ष कर सकें ।

आलोचना:
अश्वेत नारीवाद को "असहमति के विमर्श" तथा "भिन्न स्वर" के रुप में तरजीह दिए जाने के साथ-साथ नारीवादी विमर्श में आलोचना का सामना भी करना पड रहा है । आलोचकों का कहना है कि अश्वेत स्त्री द्वारा स्वंय को सिर्फ अश्वेत समूह के रुप में देखने की प्रवृति के कारण यह नस्लीय पूर्वाग्रहों में फंस गया है जिसके कारण इसके तार्किक आयाम कमजोर हुए हैं । नस्लीय भेदभाव के विरोधियों का मानना है कि अश्वेत स्त्री सिर्फ अश्वेत होने के कारण शोषित नहीं है बल्कि स्त्री होने के साथ-साथ वह अश्वेत भी है, यह उसके दोहरे उत्पीडन का प्रमुख कारण है । अश्वेत नारीवाद खुद को एकमात्र अश्वेत स्त्रियों का हितचिंतक करार देता है, उसका यह दावा महिला आंदोलन के साथ उसके अटूट रिश्ते को कमजोर करता है । अश्वेत स्त्री द्वारा अपना सारा ध्यान नस्ल के सवालों पर केन्द्रित करने के कारण यह अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक,राजनीतिक एवं आर्थिक पहलुओं की अनदेखी करता है।
                                                                ---सुप्रिया पाठक
सन्दर्भ:
·         जेन पिल्चर तथा इमेल्दा वेलेहम,की कानसेप्ट्स इन जेंडर स्टडीज, सेज प्रकाशन,2004
·         सराह गांबले, द रुटलेज कमपेनियन ओफ फेमिनिस्म एण्ड पोस्ट फेमिनिज्म,1998
·         संपा. ज्वॉय जेम्स और टी बिनियन शार्लीवटींग, ए ब्लैक फेमिनिस्ट रीडर, ब्लैकवेल, 2000
संपा. जैकलिन बोबो, ब्लैक फेमिनिस्ट कल्चरल क्रिटिसिज्म, ऑक्सफोर्ड यूएस, 2001

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