Friday 6 February 2015

विभाग के एम. फिल शोधार्थियों द्वारा विभिन्न विषयों पर बनाई गयी चित्र - प्रदर्शनी

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Schooling of Religious Culture 

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Thursday 5 February 2015

अश्वेत नारिवाद (Black Feminism)

अश्वेत नारीवाद का केन्द्रीय तर्क है कि वर्गीय, नस्लीय तथा लैंगिक शोषण अन्तरसंबंधित है । नारीवाद की प्रचलित धाराएं लैंगिक शोषण पर बात करते हुए नस्लीय वर्गीय शोषण को लगातार नजरअंदाज करती हैं । 1974 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि अश्वेत स्त्री की मुक्ति के पश्चात ही संपूर्ण मानव समाज की मुक्ति संभव है । लिंग, वर्ग तथा नस्ल आधारित शोषण को सम्यक रूप से समझे बिना तथा उनके विरूद्ध एकजुट हुए बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं । अश्वेत आंदोलन की आधारभूमि को तैयार करने में एलिस वॉकर केवुमेनिस्म के सिद्धान्त का महत्वपूर्ण योगदान है ।
एलिस वाकर 
      एलिस वाकर तथा अन्य नारीवादी विदुषियों ने यह जाहिर किया कि अश्वेत स्त्री के जीवनानुभव श्वेत, मध्यवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा न सिर्फ भिन्न हैं बल्कि उसके शोषण की परिस्थितियां भी अधिक जटिल हैं । अश्वेत स्त्री आंदोलन के उदय का कारण भी इसी तार्किक पहलू पर आधारित है कि श्वेत मध्यमवर्गीय, पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने नारीवाद की जिस धारा का नेतृत्व किया उसने वर्ग तथा नस्ल पर आधारित शोषण को तवज्जो नहीं दिया । पेट्रिशिय हिल कॉलिन्स ने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘फेमिनिस्ट थॉट ‘(1991) में अश्वेत नारीवाद को परिभाषित करते हुए कहा किइस नारीवाद को सैद्धान्तिकी देती हुई विदुषियों ने साधारण अश्वेत स्त्री के अनुभवों तथा उसके विचारों को शामिल करते हुए एक अलग किस्म को दृष्टि अपने, समुदाय तथा समाज के प्रति प्रदान की ।‘ अश्वेत नारीवाद का महत्वपूर्ण वैचारिक संबंध उत्तर औपनिवेशिक नारीवादीयों के साथ तथा तिसरी दुनिया के नारीवाद (दलित नारीवाद) के साथ भी बन रहा था । दोनों ही नारीवादी धाराएं अपनी स्वीकार्यता के लिए संघर्षरत थी । न सिर्फ इस पुरुष प्रधान संस्कृति में बल्कि पाश्चात्य नारीवादी खेमों में भी ।
      अश्वेत नारीवादी संगठनों का उदय 1970 के दशक में हुआ । नेशनल ब्लैक फेमिनिस्ट ऑरगनाइजेशन की स्थापना 1973 में हुई जिसमें नारीवादियों ने सत्ता संबंधों को प्रश्नांकित करते हुए अफ्रीकी तथा अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों द्वारा झेली जा रही हिंसा की परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिबद्धता जाहिर की । परंतु अंततः 1977 में इस संक्रीय संगठन ने काम करना बन्द कर दिया । द कॉमबाहो रिवर कलेक्टिव हमेशा अश्वेत समाजवादी नारीवादियों का एक महत्वपूर्ण संगठन बना रहा । बराबरा स्मिथ जो एक अश्वेत समलैंगिक समर्थक थीं, ने इस संगठन का नाम प्रस्तावित किया था ।
      वर्तमान अश्वेत नारीवाद एक राजनीतिक/सामाजिक आंदोलन के रूप में 1960 तथा 1970 के दशक के उन समस्त नागरिक अधिकार आंदोलनों तथा नारीवादी आंदोलन के प्रति विसम्मति से उपजा जिन्होंने उसके मुद्दों को मुख्य एजेंडे में शामिल नहीं किया था । मेरी एन वेदर जो अश्वेत नारीवाद की प्रबल समर्थक थी 1969 में एक रेडिकल नारीवादियों की पत्रिका नो मोर फन एण्ड गेम्स: ए जॉर्नल ऑफ फीमेल लिबरेशन में लिखती हैं: "दुनिया की सभी स्त्रियां शोषण की शिकार हैं यहाँ तक को श्वेत स्त्री भी । विशेष तौर पर गरीब श्वेत स्त्री तथा भारतीय, मैक्सिकन प्यूरिटोरिको की अश्वेत अमेरिका तथा अफ्रीकी स्त्रियां तीहरे किस्म के शोषण की शिकार है । परन्तु हम सभी स्त्री शोषण को सामान्य रूप से समझते हैं । इसका अर्थ है हमें सभी के साथ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी ताकि भिन्नता के बावजूद भी एक मंच पर खड़े होने की स्थितियां पैदा की जा सकें ।‘
      अश्वेत नारीवादीयों द्वारा दर्ज किया गया प्रतिरोध वस्तुतः दो दृष्टिकोणों का परिणाम है । पहला दृष्टिकोण यह मानता है कि दरअसल शोषित समूह स्वयं को शक्तिशाली समूहों के साथ जोड़ कर देखता है जिसके कारण उनके स्वयं के शोषण की कोई वैध व्याख्या उनके पास नहीं होती । दूसरा दृष्टिकोण यह मानता है कि शोषित समूह अपने शोषकों की अपेक्षा इंसानों की श्रेणी में नहीं आते इसलिए उनमें अपना दृष्टिकोण रखने की भी क्षमता नहीं होती है । दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूह द्वारा अपनी चेतना की अभिव्यक्ति को वर्चस्वशाली समूहों द्वारा स्वीकार्यता न मिलना उभरते हुए विचारों की प्रतिबद्धता को और सुदृढ़ करता है । खासतौर पर दोनों ही दृष्टिकोण यह मानते हैं कि शोषित समूहों में राजनीतिक कार्यक्षमता इसलिए मजबूती से नहीं उभर पाती क्योंकि उनमें अपनी शोषित स्थिति के प्रति चेतना का घोर अभाव होता है ।
      हालांकि अफ्रीकी महिलाएं न ही निष्क्रीय रुप से पीडा को झेलती हैं और ना ही अपनी सत्ता के लिए सक्रिय होती हैं । परिणामस्वरूप अश्वेत स्त्री अध्ययनों को होने वाले बौद्धिक कार्यों में यह स्पष्ट झलक मिलती है कि अश्वेत स्त्रियों का अपने द्वारा अपने शोषण के प्रति परिभाषित दृष्टिकोण है । दो अन्तरसंबंधित घटक इस दृष्टिकोण को परिभाषित करते हैं । पहला अश्वेत स्त्रियों की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियां उन्हें एक भिन्न प्रकार का जीवन अनुभव प्रदान करती हैं जो उनमें भौतिक यथार्थ को अन्य समूहों की अपेक्षा दुनिया को समझने की अलग दृष्टि प्रदान करता है । वे सभी सवेतनिक और अवेतनिक कार्य जो अश्वेत स्त्रियां करती है, वे समुदाय जिसका वे हिस्सा है तो वे सभी संबंध जो उनके जीवन में है,  अफ्रीकी महिलाओं को एक समूह के रूप में श्वेत मध्यमवर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा अलग किस्म की दुनिया का अनुभव कराती है । दूसरा इस प्रकार के अनुभव अश्वेत स्त्रियों को भौतिक यथार्थ के प्रति भिन्न चेतना पैदा करते है ।
अर्थात् संक्षिप्त शब्दों में, अधीनस्थ समूह न सिर्फ एक भिन्न यथार्थ का अनुभव अपने शोषक समूह की अपेक्षा करता है बल्कि वह समूह उस भिन्न यथार्थ को वर्चस्वशाली समूहों की अपेक्षा अलग ढंग से व्याख्यायित भी करता है ।
  परंतु यह भी सत्य है कि एक अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण के अलग होने का यह अर्थ नहीं कि इसे पर्याप्त रूप से अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त में व्याख्यायित किया गया हो । पीटर बर्जर तथा थॉमस लॉकमॅन ने अश्वेत स्त्री के दृष्टिकोण तथा अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त में मध्य संबंध बताने का प्रयास किया है । अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त एक विस्तार के रूप में दूसरे स्तर के ज्ञान की बात करता है जबकि अश्वेत स्त्री का दृष्टिकोण प्रत्येक दिन के जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति है जो उस सैद्धान्तिकीकरण की आधारभूमि तैयार करता है । लेकिन, ये दोनों ही स्तर अन्तरसंबंधित हैं।
  अपनी ज्ञान परंपरा को वैधता दिलाने तथा उसे स्थापित करने के क्रम में अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त को तीन स्तर पर चुनौतियों का सामना करना है । पहला साधारण अश्वेत स्त्रीयों के बीच अपने स्द्धिान्तों के प्रति विश्वास पैदा करना। दूसरा अश्वेत विदुषी स्त्रियां जो सामान्यतः नारीवादी नहीं है, उनके बीच अपनी स्वीकार्यता हासिल करना तथा तीसरा अकादमिक जगत में यूरोकेन्द्रित पुरुषवादी राजनीतिक तथा ज्ञान मिमांसात्मक मुठभेड़ का सामना करना ।
   अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त इस महत्वपूर्ण संभावना को पैदा करता है कि अश्वेत स्त्रियां अपने विशेष ज्ञान का उत्पादन कर सकती हैं । इस प्रकार का भिन्न दृष्टिकोण अफ्रीकी, अमेरिकी अश्वेत स्त्रियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि वे अपने ज्ञान को महत्व देते हुए प्रचलित नारीवादी धाराओं में स्थान एवं स्वीकार्यता के लिए आवाज बुलंद करें । अश्वेत स्त्री के सांस्कृतिक तथा पारंपरिक विचारों को उठाते हुए अश्वेत नारीवादी सिद्धान्त उनमें नये अर्थ भरता है तथा उसके प्रति चेतना जागृति का कार्य करता है । खासतौर पर इस प्रकार की व्याख्याएं अश्वेत अफ्रीकी तथा अमेरिकी स्त्रियों को प्रतिरोध का एक नया तरीका सिखाती है जिसके सहारे वे सभी प्रकार के वर्चस्वों के विरूद्ध संघर्ष कर सकें ।

आलोचना:
अश्वेत नारीवाद को "असहमति के विमर्श" तथा "भिन्न स्वर" के रुप में तरजीह दिए जाने के साथ-साथ नारीवादी विमर्श में आलोचना का सामना भी करना पड रहा है । आलोचकों का कहना है कि अश्वेत स्त्री द्वारा स्वंय को सिर्फ अश्वेत समूह के रुप में देखने की प्रवृति के कारण यह नस्लीय पूर्वाग्रहों में फंस गया है जिसके कारण इसके तार्किक आयाम कमजोर हुए हैं । नस्लीय भेदभाव के विरोधियों का मानना है कि अश्वेत स्त्री सिर्फ अश्वेत होने के कारण शोषित नहीं है बल्कि स्त्री होने के साथ-साथ वह अश्वेत भी है, यह उसके दोहरे उत्पीडन का प्रमुख कारण है । अश्वेत नारीवाद खुद को एकमात्र अश्वेत स्त्रियों का हितचिंतक करार देता है, उसका यह दावा महिला आंदोलन के साथ उसके अटूट रिश्ते को कमजोर करता है । अश्वेत स्त्री द्वारा अपना सारा ध्यान नस्ल के सवालों पर केन्द्रित करने के कारण यह अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक,राजनीतिक एवं आर्थिक पहलुओं की अनदेखी करता है।
                                                                ---सुप्रिया पाठक
सन्दर्भ:
·         जेन पिल्चर तथा इमेल्दा वेलेहम,की कानसेप्ट्स इन जेंडर स्टडीज, सेज प्रकाशन,2004
·         सराह गांबले, द रुटलेज कमपेनियन ओफ फेमिनिस्म एण्ड पोस्ट फेमिनिज्म,1998
·         संपा. ज्वॉय जेम्स और टी बिनियन शार्लीवटींग, ए ब्लैक फेमिनिस्ट रीडर, ब्लैकवेल, 2000
संपा. जैकलिन बोबो, ब्लैक फेमिनिस्ट कल्चरल क्रिटिसिज्म, ऑक्सफोर्ड यूएस, 2001

Wednesday 4 February 2015

पितृसत्ता के स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगानेवाली कन्नड़ भाषा की पहली महिला कवि : अक्क महादेवी (Akka Mahadevi )

भक्ति आंदोलन के प्रसार में उत्तर दक्षिण की अनेक महिला भक्त कवियों ने में अपना अमूल्य योगदान दिया जिसमें गंगाबाई मीराबाई, जनाबाई, आष्ड़ाल, ललपद तथा अक्का महादेवी प्रमुख है । इन महिला भक्त कवियों ने धर्म, जाति, वर्ग इत्यादि रूढियों के साथ-साथ समाज में गहरे जड़ जमाए पितृसता के संरचनात्मक स्वरूप पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया एवं अपने व्यक्तिगत जीवन में इन सारी पंरपराओं को काफी हद तक खंडित किया । बारहवी सदी के कन्नड़ वचनकारों में अक्क महादेवी इस भाषा की पहली कवि मानी जाती हैं। उनका जन्म कर्नाटक के सिमोगा (पूर्व नाम उद्ताडीद्) नामक ग्राम में हुआ था ।  उनके बारे में कहा जाता है कि वह गरीब परिवार में पैदा हुई थी पर सुंदर थीं। कोशिस नाम का राजा उनसे विवाह करना चाहता था। एक किंवदंती के अनुसार उन्होंने उससे विवाह नहीं किया। दूसरी किंवदती के अनुसार कुछ शर्तो पर विवाह तो किया पर राजा ने शर्ते तोड़ी, इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया।
अक्क महादेवी 
    अक्क महादेवी ने गृहस्थ जीवन नहीं बिताया । अण्डाल की तरह उनमें भी उत्कट प्रेम की अभिलाषा थी। उनका यह प्रेम लौकिक पुरूष से हटकर अलौकिक शक्ति के प्रति था । कन्नड़ साहित्य का इतिहास में मुगलि ने उनके वचनों को उद्दत किया है जिससें उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व के बारे में जानकारी प्राप्त होती है । अक्क महादेवी के इष्ट देव शिव थे जिन्हे वे चेन्नमल्लिकार्जुन के नाम से सम्बोधित करती थीं तथा स्वंय को उनके समक्ष चम्पा के सफेद पुष्पों के समान पवित्र स्त्री के रूप में पेश करती थीं । अक्का महादेवी ने अपने संपूर्ण जीवन काल में उन सारे परंपराओं एवं वर्जनाओं को तोड़ा जो पितृसता को संस्थागत स्वरूप प्रदान कर रहीं थी । उनके जीवन के समस्त पक्षों एवं उसके अन्तर्विरोधों को समझने के लिए उनकी जीवन कथा पर दृष्टिपात करना आवश्यक है ।
  अपने भ्रमणशील, स्वतंत्र एवं पारिवारिक बन्धन से मुक्त होने के कारण उन्होंने समाज में अपने लिए एक अलग भूमि तैयार की । स्वंय को स्थापित करने के प्रयास में उन्हें अनेक पुरूष भक्त कवियों जैसे अलम्मा, वासव इत्यादि से गहन वैचारिक संघर्ष करना पड़ा । बावजूद इसके उन्होने स्वंय को इन कवियों के समानान्तर वैचारिक एवं दार्शनिक स्तर पर स्थापित किया । प्रेम के अपने संबंध के मामले में भी वे तत्कालीन समस्त महिला भक्त कवियों से क्रांतिकारी साबित हुईं । मीरा की तरह स्वंय को सांसारिक बन्धनों से अलग करने की बजाय संसार में रहते हुए ही उन समस्त पारंपरिक एवं सांसांरिक बन्धनों को तोडने का प्रयास किया । परन्तु चूंकि वे उन्हीं सारे पितृसत्तात्मक मूल्य के बीच बड़ी हुई थी इसलिए उनके काव्यों में इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह के साथ-साथ किसी न किसी रूप में जुड़े होने का अंतर्द्वंद भी झलकता है ।
  अक्क महादेवी के पदों में अपने आराध्य देव के प्रति नैतिकता का जो बोध था वो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विपरीत था । महादेवी में अन्य स्त्रियों की भांति अपने आकांक्षाओ को नियंत्रित करने की बजाए उसे अपने आराध्य के समाने प्रस्तुत करने की प्रवृति थी । उनके काव्यों में कामोचेतना को उद्दत करने वाले सारे तत्व मौजूद हैं । अपने काव्यों में वो कहती हैं कि : मेरे व्यथित मन के लिए है सखी सब उलटा हो गया । मंद हवा पलटकर ज्वाला बन गयी । चांदनी तपाने वाली धूप हो गयी। मैं कर वसूल करने वाले कर्मचारी की तरह भटकती फिरती रही। कभी वरुण देव के पैर पकड़ती, कभी चन्द्रमा के समक्ष आँचल फैलाकर प्रार्थना करती कि इस विरह का सत्यानाश हो। मैं किसी के लिए धीरज क्यों खोऊं ? हे भ्रमर समूह, आम के पेड़ चाँदनी कोकिला, तुम सबसे मेरी प्रार्थना है। मेरे प्रभु, चेन्न मल्लिकार्जुन तुम्हें कहीं दिखें तो मूझे बुलवा कर उन्हें  दिखलाओं यधापि वे अपने काव्यों के माध्यम से तत्कालीन स्थिति के विपरीत अपनी विरह वेदना प्रदर्शित करती हैं तथापि पतिव्रता धारणा को भी पुष्ट करती ही नजर आती हैं । इसलिए ये कहना कि नैतिकता के मापदण्डों को उन्होंने तोड़ा अतिशयोक्ति होगी । हाँ यह अवश्य हुआ कि उनके द्वारा इसे अन्य तरीके से पुनः परिभाषित किया गया।
                महादेवी ने समस्त सांसारिक बातों को मिथ्या माना एवं एक आलौकिक संबंध के लिए इन सारी मिथ्याओं को अस्विकृत किया । वे निर्वस्त्र भ्रमण करती थी जिसके कारण उन्हें समाज में चरित्रहीन एवं कुलटा स्त्री के रूप में देखा जाता था । वे स्त्री समाज में असमंजस का केन्द्र थी । अपने आप को सन्त बनाने का निर्णय लेकर भी अक्क महादेवी समाज के कई परंपराओं को एक स्तर पर तोड़ती हैं । धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के सन्त न बनने की आज्ञा के बावजूद वे सन्त बनी परंतु वे वी भी शिव के प्रति एक पतिव्रता की धारणा लिए अनजाने में ही विधवाओं के लिए बनाये गए सारे नियमों का पालन करतीं रहीं । वे निर्भय होकर अपने काव्यों में कहती हैं कि  संसार के कुछ भी करने पर मैं डरने वाली नहीं हूँ । मैं सूखे पत्ते चबाकर रहूंगी । छूरी की धर पर सोऊंगी । चेन्न मलिल्कार्जुन, तुम मेरा हाथ छोड़कर भाग जाओ तो अपना शरीर एवं प्राण तुमको सौंपकर शुळ रहूंगी । इन वाक्यों से महादेवी की शिव के प्रति अन्यन्य भावना तो झलकती ही है पर साथ ही सती के जिस लौकिक रूप की वे भत्सर्ना करती हैं वही अलौकिक शक्ति के लिए अपने शरीर को भस्मीभूत करने से भी वे नहीं हिचकती जान पड़ती हैं । अर्थात् लौकिक संसार में वे जिस प्रधानता को अस्वीकार कर रही थीं वहीं अलौकिक संसार के सन्दर्भ में वे पितृसत्तात्मक मूल्यों के तहत स्थापित ईश्वर नामक सबसे प्रधान पितृसत्ता की भक्ति भी करती हैं ।
                महादेवी के काव्य भी दो पायदानों पर झूलते हैं । एक तरफ तो वे शिव एवं अपने संबंध को लेकर एक आम स्त्री-पुरूष की धारणा रखती हैं । साथ ही, समाज के प्रति सशक्त विद्रोह भी उनके काव्यों में स्पष्टता दिखाई पड़ता है । उनके वचनों से मालूम होता है कि उन्हें साधना में तिरस्कार एवं लोकनिन्दा का शिकार होना पड़ा । जैसे शुद्रों को तपस्या करने का अधिकार नहीं था वैसे ही स्त्रियों को घर बार छोड़कर भक्ति करने का भी अधिकार नहीं था । समाज में ऊंच नीच का भेद न मानने वाले भक्तों को विरोध का सामना करना पड़ा । उन भक्तों में यदि कोई स्त्री हो विशेषकर अक्कमहादेवी जैसी क्रांतिकारी तो उसे जिस तरह के सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा होगा इसकी स्वतःकल्पना की जा सकती है । महादेवी भी उन समस्त विरोधों को एकमात्र अपने आराध्य देव शिव के लिए झेलती हैं । महादेवी संसार में रहती हैं एवं संसार के भीतर ही विरोध का सामना भी करती हैं । पहाड़ के ऊपर घर बनाया तो लहरों से क्या करना ? बाजार के भीतर घर बनाया तो कोलाहल से क्या डरना जैसे शब्दों से उनका विरोध तो झलकता है परन्तु अन्ततः यह सारा विरोध लौकिक जगत के ऊपर विद्यमान शिव नामक अलौकिक पितृसत्तात्मक शक्ति में समाहित हो जाता है ।
                इसी प्रकार महादेवी ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान अनेक विसंगतियों के प्रति भी अपना विरोध प्रकट किया । धर्म और यौनता तथा धर्म एवं जाति के प्रश्नों पर भी अक्क महादेवी ने काफी आक्रामक तेवर दिखाया । उनकी दृष्टि में उनके प्रति चेन्नमल्लिकार्जुन के अलावा संसार में कोई पुरूष ही नहीं जिसे वे वरण कर सकें । उनका यह वकतव्य ही तत्कालीन सामाजिक एवं पारंपरिक व्यवस्था के प्रति उनके अति आक्रामक सोच का परिचायक है । वे सांसारिक पति के अस्तित्व को ही पूर्णतः अस्विकृत करती है । साथ ही अक्कमहादेवी कुल तथा परिवार की मर्यादा को भी अस्वीकार करती हैं । उनके इस अस्वीकृति के पीछे सामाजिक संरचना भी ध्वस्त होती है जो कही न कहीं से इस परिवार नामक संस्था का उद्गम स्थल है ।
   महादेवी ने उन समस्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थिति के मध्य अपने लिए एक महत्वपूर्ण भूमि भी तैयार की एंव एक भक्त कवि के रूप में प्रसिद्ध भी हुईं । सवाल यह है कि क्या महादेवी ने यह खण्डन किसी साधारण मनुष्य के लिए किया होता तो वे इतनी पूजनीया एवं प्रसिद्ध होती जितनी वर्तमान समय में हैं ? संभवतः नहीं, क्योंकि आम जनता ने उनके सारे उल्लंघनों को इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे सारी सीमाओं का उल्लंघन ईश्वर नामक उस परम सता के लिए कर रहीं थीं । इसलिए वही धार्मिक मान्यतायें उन्हें सशक्त भी कर रहीं थी तथा स्व के लिए संघर्ष के लिए जो शक्ति मिल रही थी वह भी उन्हें धार्मिक स्तर पर ही मिल रही थी । सारांश यह की इस आन्दोलन में पितृसता ने बतौर सिद्धान्त अपने आप को मूलरुप में स्थापित किया । जिसका माध्यम अनजाने में ही अक्कमहादेवी भी बनीं । परन्तु इसके बावजूद भी अक्क महादेवी जैसी भक्त महिलाओं का तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में हस्तक्षेप एक सकारात्मक हस्तक्षेप ही कहा जा सकता है जो निश्चय ही प्रशंसनीय है ।
1. सूजी थारु एण्ड केललितावुमेन राइटिंग इन इण्डियाऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प नई    दिल्ली, 199                                                  - - सुप्रिया पाठक 


स्त्री अध्ययन विभाग के Alumni

भूतपूर्व विद्यार्थियों/शोधार्थियों की सूची
                  (रोजगार प्राप्त)
संजीव चन्दन                            संपादक स्त्री-कालशोध पत्रिका 
ड़ा. सुमित सौरभ                       सहायक प्रोफेसरकुरुक्षेत्र विश्वविद्यालयहरियाणा  
ड़ा. सर्वेश पांडे                          शोध सहायकमहिला एवं वाल विकास मंत्रालयनई दिल्ली
ड़ा. विजय झा                           शोध सहायकसेंटर फॉर वीमेंस डेवेलेपमेंट स्टडीजनई दिल्ली
ड़ा. ममता सिंह                          सहायक प्रोफेसरकुरुक्षेत्र विश्वविद्यालयहरियाणा  
ड़ा. विश्रांति मुंजेवार             सहायक प्रोफेसरनॉर्थ महाराष्ट्र विश्वविद्यालयजलगांव(महाराष्ट्र)
ड़ा. विवेक कुमार जायसवाल   सहायक प्रोफेसरडॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालयसागर (मध्यप्रदेश)
देवाशीष प्रसून                           विशेष संवाददातादैनिक भास्कर ग्रूपनई दिल्ली    
अपर्णा दीक्षित                           शोध सहायकजामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय,
                                                                   नई दिल्ली   
ऋचा सिंह                                शोध सहायकइलाहाबाद विश्वविद्यालय (उत्तर प्रदेश)

                (शोध-कार्य/उच्च शिक्षा में संलग्न)
प्रत्युष प्रशांत             (पी.एच.डी. शोधार्थी )    जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 
गोपाल चौधरी          (पी.एच.डी. शोधार्थी )   केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद, आंध्र प्रदेश 
ममता काराड़े           (पी.एच.डी. शोधार्थी )    जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली 
ओम प्रकाश कुशवाहा    (पी.एच.डी. शोधार्थी )  जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली    
अरूण कुमार             (पी.एच.डी. शोधार्थी )      दिल्ली विश्वविद्यालय
चरनजीत सिंह          (पी.एच.डी. शोधार्थी )     केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद, आंध्र प्रदेश 
सुनीता कुमारी         (पी.एच.डी. शोधार्थी )      दिल्ली विश्वविद्यालय
कविता रतूड़ी          (पी.एच.डी. शोधार्थी )     जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली    
अर्चना पांडे            (पी.एच.डी. शोधार्थी )     जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली    
कीर्ति                   (पी.एच.डी. शोधार्थी )      जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली    
सुशीला कुमारी        (पी.एच.डी. शोधार्थी )       दिल्ली विश्वविद्यालय
सुषमा पांडे            (पी.एच.डी. शोधार्थी )      गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय

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Tuesday 3 February 2015

समर्पित उन सभी महिलाओं को ........

समर्पित उन सभी महिलाओं को जो संघर्ष करते हुए मारी गयी, जो हिंसा का शिकार हुई, लगातार हो रही हैं और अगर हमने नहीं रोकी तो होती रहेंगी ... शिकार हिंसा की 

नारीवाद (Feminisms )


  नारीवाद एक राजनीतिक विचार है जो यह मानता है कि स्त्रियां भी मनुष्य हैं।
नारीवाद  शब्द का उदय फ्रेंच शब्द फेमिनिस्मे  से 19 वीं सदी के दौर में हुआ। उस समय इस शब्द का प्रयोग पुरूष के शरीर में स्त्री गुणों के आ जाने अथवा स्त्री में पुरूषोचित व्यवहार के होने के सन्दर्भ में किया जाता था। 20 वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में इस शब्द क प्रयोग कुछ महिलाओं के समूह को संबोधित करने के लिए किया गया जो स्त्रियों की एकता, मातृत्व के रहस्यों तथा स्त्रियों की पवित्रता इत्यादि मुद्दो पर एकजुट हुई थीं। बहुत जल्द ही इस शब्द का राजनीतिक रूप से प्रयोग उन प्रतिबद्ध महिला समूहों के लिए किया जाने लगा जो स्त्रियां की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रही थी। उनकी इस बात में गहरी आस्था थी कि स्त्रियां भी मुनष्य हैं।
बाद में इस शब्द का प्रयोग हर उस व्यक्ति के लिए किया जाने लगा जो यह मानते थे कि स्त्रियां अपनी जैविकीय भिन्नता के कारण शोषण झेलती हैं और उन्हें कम से कम कानून की दृष्टि में औपचारिक तौर पर समानता दिए जाने की जरूरत है। इसके बावजूद की यह हलिया विकसित किया गया शब्द हैं, 18 वीं सदी के कई लेखकों एवं चिंतकों जैसे मेरी वुल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, बेट्टी फ्रायडन इत्यादि को उनके उस दौर में स्त्री प्रश्नों के इर्द-गिर्द विमर्श करने के कारण नारीवादी माना जाता है। 
सभी नारीवादी चिंतक एवं लेखक इस शब्द के प्रयोग के पहले से इस कल्पना को जीते आये हैं कि एक दिन एक ऐसी दुनिया होगी जहाँ स्त्रियां अपनी व्यक्तिगत क्षमता को पहचान सकेंगी। इसकी रूपरेखा बनाते हुए कुछ विचारों ने इसे अवधारणात्मक रूप भी प्रदान किया। हालांकि लम्बे समय तक नारीवादी ज्ञान को अनौपचारिक तथा अवैध ज्ञान समझा जाता रहा। आधुनिक नारीवादियों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य था कि वे नारीवादी विचारों को स्त्रियों के व्यापक समूहों के बीच प्रसारित करते हुए उसके प्रति आस्था पैदा करें। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण था कि कई स्त्रियां विभिन्न कारणों से स्वयं का नारीवादी कहलाना पसंद नहीं करती थी।
                   यह भी सत्य था कि कोई भी स्त्री जो स्वयं को नारीवादी कहलाना पसंद करे उसकी अनिवार्यतः एक ही विचार में आस्था हो,यह भी आवश्यक नहीं। मतों के इस वैभिन्य को एक ही समग्र विचारधारा में समाहित करना लगभग असंभव है। इसलिए इसके अच्छे-बूरे अनेक कारणों की वजह से नारीवादशब्द का बहुवाचिक तथा बहुसन्दर्भिक प्रयोग अनिवार्य हो गया  इसलिए 1980 के दशक में नारीवाद का विभिन्न धाराओं में बंट जाना एक सामान्य सी बात थी। हालांकि नारीवादी की सभी धाराएं समाज में हो रहे स्त्री शोषण को समाप्त करने के मुख्य लक्ष्य पर एकमत थीं । परंतु उन्होंने इस समस्या को हमेशा एक ही दर्शन तथा राजनीतिक आधार पर नहीं देखा। इस बात पर भी आम सहमति है कि नारीवादी विरासत में इस प्रकार की वैचारिक विविधताओं तथा विभेदों ने उसके सैद्धांतिक धरातल को और भी समृद्ध किया। अतः यह कहा जा सकता है कि  कि सभी धाराओं के नारीवादी इस बात से सहमत है कि स्त्रियां अपनी लैंगिक पहचान के कारण सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को झेलती हैं और वे सभी इस व्यवस्था को चुनौती देने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका लक्ष्य एक है सिर्फ उसे व्याख्यायित करने एवं उसतक पहुँचने की प्रविधि में विविधता है। अर्थात् नारीवाद’  एक शब्द के रूप में विभिन्नताओं का समारोह है। अधिकतर नारीवादी चिंतक विचारों के इस वैविध्य को एक स्वस्थ विमर्श के प्रतीक के रूप में देखते हैं जबकि कई नारीवादी आलोचक इसे नारीवाद में अन्तनिर्हित कमजोरियों मानते हैं जिसके कारण इस विचार के तार्किक पहलू कमजोर पडे  हैं। कई आलोचक इस विखण्डन को आधुनिक नारीवाद के साथ  भी जोड़ कर देखते हैं। नारीवादियों का उदय एवं उनका बौद्धिक विकास सदैव विविध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में हुआ हैं एवं उन्होंने हमेशा अपनी भौगोलिक स्थिति एवं समय के अनुसार ही मुद्दों को उठाया है।
                इस तथ्य के बावजूद कि नारीवाद व्यक्तिगत राजनीतिक दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करता है। (संभवतः यह प्रवृति 21 वीं सदी में ज्यादा स्पष्ट हुई है) आधुनिक नारीवादी सिद्दांत इस पहलू को खारिज   करता है। उदारवादी नारीवाद पाश्चात्य समाजों मे प्रबोधनकाल के दौरान उदारवादी विचारों में विभिन्नता को रेखांकित करता है तथा जनतांत्रिक व्यवस्था के अन्दर ही राजनैतिक प्रक्रियाओं के माध्यम स्त्रियों की सामाजिक अधीनता की स्थिति को उठाते हुए उनके समाधान को ढुंढता है। उदारवादियों के लिए मुख्य लड़ाई शिक्षा तक पहुँच है। मेरी वुल्सटनक्रफ्ट के अनुसार यदि स्त्री-पुरूष को समान शिक्षा दी जाए तो समाज में भी वे समान अवसर प्राप्त कर सकेंगी । उदारवादी सामान्यतः रेडिकल तथा समाजवादियों द्वारा किये जा रहे क्रांति तथा मुक्ति जैसे शब्दों का प्रयोग अपनी राजनीति को स्पष्ट करने के लिए नहीं करते। उनकी यह आस्था हैं कि जनतंत्र प्राकृतिक रूप से स्त्री-पुरूष समानता को मानता है। उदारवादी दृष्टिकोण नारीवाद को स्थापित व्यवस्था में एक व्यावहारिक विवेक के रूप में व्याख्यायित करता है। यह व्याख्या उन अधिकांश स्त्रियों पर लागू होती है जो स्वयं को नारीवादी मानती हैं परन्तु वे समाजिक यथास्थिति की व्यवस्था को पूर्णतः उलट देने की पक्षधर नहीं है। वे समाज में स्त्रियों की स्थिति को बेहतर करने के लिए व्यवस्था परिवर्तन की हिमायती नहीं है बल्कि स्थापित व्यवस्था में कानूनी परिवर्तनों के माध्यम से समानता की राह तलाशती हैं। साथ ही,  उदारवादी इस बात से भी सहमत हैं कि स्त्री एवं पुरूष अपनी प्रदत भूमिकाओं को निभाते हुए घर एवं बाहर के विभाजन को बनाएं रखें। ताकि श्रम के लैंगिक विभाजन की यह व्यवस्था बनी रहे।
                समाजवादी या मार्क्सवादी नारीवाद स्त्री की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन को औद्योगिक पूंजीवाद को उलट देने तथा उत्पादन के साधनों के साथ मजदूर के बदले संबंधों के सन्दर्भ में देखता है। उनके अनुसार क्रांति ही एकमात्र उपाय है। हालांकि गुजरते समय के साथ समाजवादी नारीवादी इस प्रस्थापना पर और आग्रही हुए हैं कि समाजवादी क्रांति के उपरांत महिलाओं के जीवन में निश्चित रूप से परिवर्तन होंगे। वे भी जेंडर विभेद को अत्यंत आग्रही विचार के साथ देखते हैं। फिर भी, समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवादी हमेशा इस बात से सचेत हैं कि किस प्रकार समाज को वर्ग, जाति तथा नस्ल के आधार पर विभाजित किया गया है। इस विभाजन को बनाए रखने में जेंडर की अहम भूमिका होती हे। समाज की ये सभी संरचनाएं एक दूसरे के साथ अन्तरनिहित हैं तथा समान रूप से विनाशकारी हे। उदारवादियों के साथ साम्य बनाते हुए समाजवादी नारीवाद पुरूष को इन सबके साथ जोड़ कर देखते हैं। इसलिए किसी भी प्रकार के परिवर्तनकारी आंदोलन में पुरूषों की भूमिका उनकी दृष्टि में महत्वपूर्ण है।
                रेडिकल नारीवाद की प्रारंभिक प्रस्थापनाओं में भी यह पूर्वानुमान निहित था कि यदि पुरूष समस्याओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है तो उसके समाधान में भी वह बराबर की भूमिका निभाएगा। हालांकि रेडिकल नारीवाद को सामान्यतः जन साधारण में प्रचलित चेतनाओं तथा पुरूष विरोधी रूख के लिए जाना जाता है। रेडिकल नारीवादीयों का उदय विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में 1960 के दशक में उभरे विभिन्न वामपंथी तथा नागरिक अधिकार आंदोलन के दौर में हुआ। उनकी राजनीति व्यापक तौर पर रेडिकल वामपंथ की थी पर वे रेडिकल वामपंथी आन्दोलनकारियों के वर्चस्वकारी पौरूषपूर्ण व्यवहार से अत्यंत विरक्त हो गई और स्त्री मुक्ति आंदोलनों को अलग से संगठित करना शुरू किया। ताकि पुरूष केन्द्रित ज्ञान एवं राजनीति से परे स्त्रियों के शोषण को समझा जा सकें। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि स्त्री केन्द्रित राजनीति ही स्त्रियों के लिए समाज में स्थान बनाने की युक्ति निकाल सकती है। रेडिकल राजनीति जो नव वामपंथी तथा नागरिक आंदोलनों के अनुभवों से सीख लेकर उभरा था, एक ऐसा राजनीतिक संगठन चाहता था जो पुरूषवाद की विकृति से मुक्त हो। उनकी कई धारणाओं को नारीवाद की अन्य धाराओं तथा सामानय जन में गलत ढंग से पेश किया गया तथा उन्हें पुरूष विरोधी एवं समलैंगिकता की प्रबल समर्थक के रूप में प्रचारित किया गया। यह भी माना गया कि वे जिस तरह की दुनिया को रचना चाहती थी उसमें वे पुरूष सत्ता को आमूलचूल रूप से परिवर्तित करना चाहती थी। व्यवस्था के इस उलटफेर के विचार को कई नारीवादी धाराओं ने स्वीकार नहीं किया।
                नारीवादी समूहों ने हमेशा अश्वेत, कामगार , समलैंगिक तथा विभिन्न यौनिक पहचान वाली स्त्रियों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया हैं अभी भी अस्मिताओं के संघर्ष तथा अपनी तकलीफों को भिन्न प्रकार से अभिव्यक्ति देने की प्रक्रिया लगातार जारी है। उदाहरणस्वरूप 1979 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव  ने अश्वेत नारीवादी घोषणा पत्र को प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने एक स्तर पर प्रचलित नारीवाद के साथ होने का अहसास कराने के साथ-साथ यह भी जाहिर किया कि सिर्फ स्त्रियों के शोषण को पृथक तरीके से देखने के बजाए अंततः नस्ल, वर्ग तथा लैंगिक प्रशिक्षणों के साथ उसके जुडाव को भी समझने की जरुरत है जिसे समझे बिना शोषण को ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार के हाशिए पर होने के अहसास ने नारीवादी सिद्धांत में  1970 तथा 1980 के दशक में नयी अस्मिताअें के पैदा होने की जमीन तैयार की जिसके फलस्वरुप अश्वे तथा दलित नारीवाद जैसे विचारों का जन्म हुआ।  
                उत्तर आधुनिक तथा उत्तर संरचनावादी हस्तक्षेपों ने इस विचारधारा के वैविध्य को और बढ़ाया जिससे नारीवादी को समझने की एक नई दृष्टि मिलों। उनका मानना था कि शोषक/शोषित के सत्ता सिद्धांतों को व्यापक प्रश्नों के दायरे में समस्या के रूप में देखने पर यह पता चलता है कि किस प्रकार सामाजिक विमर्श में सत्य तथा उसके अर्थ को पैदा किया जाता है। उन्होंने बेहतरीन तरीके से सत्ता के साथ शोषण के अनिवार्यतः जुडे होने की व्याख्या की। इन सभी वैचारिक विमर्शों के उपरांत नारीवाद एक शब्द के रूप में अपने अनेक अर्थो एवं मत-मतांतरों के साथ हमारे सामने है। 
-- सुप्रिया पाठक
सन्दर्भ:
·         जेन पिल्चर तथा इमेल्दा वेलेहम,की कानसेप्ट्स इन जेंडर स्टडीज, सेज प्रकाशन,2004
·         सराह गांबले, द रुटलेज कमपेनियन ओफ फेमिनिस्म एण्ड पोस्ट फेमिनिज्म,1998