Wednesday 4 February 2015

पितृसत्ता के स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगानेवाली कन्नड़ भाषा की पहली महिला कवि : अक्क महादेवी (Akka Mahadevi )

भक्ति आंदोलन के प्रसार में उत्तर दक्षिण की अनेक महिला भक्त कवियों ने में अपना अमूल्य योगदान दिया जिसमें गंगाबाई मीराबाई, जनाबाई, आष्ड़ाल, ललपद तथा अक्का महादेवी प्रमुख है । इन महिला भक्त कवियों ने धर्म, जाति, वर्ग इत्यादि रूढियों के साथ-साथ समाज में गहरे जड़ जमाए पितृसता के संरचनात्मक स्वरूप पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया एवं अपने व्यक्तिगत जीवन में इन सारी पंरपराओं को काफी हद तक खंडित किया । बारहवी सदी के कन्नड़ वचनकारों में अक्क महादेवी इस भाषा की पहली कवि मानी जाती हैं। उनका जन्म कर्नाटक के सिमोगा (पूर्व नाम उद्ताडीद्) नामक ग्राम में हुआ था ।  उनके बारे में कहा जाता है कि वह गरीब परिवार में पैदा हुई थी पर सुंदर थीं। कोशिस नाम का राजा उनसे विवाह करना चाहता था। एक किंवदंती के अनुसार उन्होंने उससे विवाह नहीं किया। दूसरी किंवदती के अनुसार कुछ शर्तो पर विवाह तो किया पर राजा ने शर्ते तोड़ी, इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया।
अक्क महादेवी 
    अक्क महादेवी ने गृहस्थ जीवन नहीं बिताया । अण्डाल की तरह उनमें भी उत्कट प्रेम की अभिलाषा थी। उनका यह प्रेम लौकिक पुरूष से हटकर अलौकिक शक्ति के प्रति था । कन्नड़ साहित्य का इतिहास में मुगलि ने उनके वचनों को उद्दत किया है जिससें उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व के बारे में जानकारी प्राप्त होती है । अक्क महादेवी के इष्ट देव शिव थे जिन्हे वे चेन्नमल्लिकार्जुन के नाम से सम्बोधित करती थीं तथा स्वंय को उनके समक्ष चम्पा के सफेद पुष्पों के समान पवित्र स्त्री के रूप में पेश करती थीं । अक्का महादेवी ने अपने संपूर्ण जीवन काल में उन सारे परंपराओं एवं वर्जनाओं को तोड़ा जो पितृसता को संस्थागत स्वरूप प्रदान कर रहीं थी । उनके जीवन के समस्त पक्षों एवं उसके अन्तर्विरोधों को समझने के लिए उनकी जीवन कथा पर दृष्टिपात करना आवश्यक है ।
  अपने भ्रमणशील, स्वतंत्र एवं पारिवारिक बन्धन से मुक्त होने के कारण उन्होंने समाज में अपने लिए एक अलग भूमि तैयार की । स्वंय को स्थापित करने के प्रयास में उन्हें अनेक पुरूष भक्त कवियों जैसे अलम्मा, वासव इत्यादि से गहन वैचारिक संघर्ष करना पड़ा । बावजूद इसके उन्होने स्वंय को इन कवियों के समानान्तर वैचारिक एवं दार्शनिक स्तर पर स्थापित किया । प्रेम के अपने संबंध के मामले में भी वे तत्कालीन समस्त महिला भक्त कवियों से क्रांतिकारी साबित हुईं । मीरा की तरह स्वंय को सांसारिक बन्धनों से अलग करने की बजाय संसार में रहते हुए ही उन समस्त पारंपरिक एवं सांसांरिक बन्धनों को तोडने का प्रयास किया । परन्तु चूंकि वे उन्हीं सारे पितृसत्तात्मक मूल्य के बीच बड़ी हुई थी इसलिए उनके काव्यों में इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह के साथ-साथ किसी न किसी रूप में जुड़े होने का अंतर्द्वंद भी झलकता है ।
  अक्क महादेवी के पदों में अपने आराध्य देव के प्रति नैतिकता का जो बोध था वो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विपरीत था । महादेवी में अन्य स्त्रियों की भांति अपने आकांक्षाओ को नियंत्रित करने की बजाए उसे अपने आराध्य के समाने प्रस्तुत करने की प्रवृति थी । उनके काव्यों में कामोचेतना को उद्दत करने वाले सारे तत्व मौजूद हैं । अपने काव्यों में वो कहती हैं कि : मेरे व्यथित मन के लिए है सखी सब उलटा हो गया । मंद हवा पलटकर ज्वाला बन गयी । चांदनी तपाने वाली धूप हो गयी। मैं कर वसूल करने वाले कर्मचारी की तरह भटकती फिरती रही। कभी वरुण देव के पैर पकड़ती, कभी चन्द्रमा के समक्ष आँचल फैलाकर प्रार्थना करती कि इस विरह का सत्यानाश हो। मैं किसी के लिए धीरज क्यों खोऊं ? हे भ्रमर समूह, आम के पेड़ चाँदनी कोकिला, तुम सबसे मेरी प्रार्थना है। मेरे प्रभु, चेन्न मल्लिकार्जुन तुम्हें कहीं दिखें तो मूझे बुलवा कर उन्हें  दिखलाओं यधापि वे अपने काव्यों के माध्यम से तत्कालीन स्थिति के विपरीत अपनी विरह वेदना प्रदर्शित करती हैं तथापि पतिव्रता धारणा को भी पुष्ट करती ही नजर आती हैं । इसलिए ये कहना कि नैतिकता के मापदण्डों को उन्होंने तोड़ा अतिशयोक्ति होगी । हाँ यह अवश्य हुआ कि उनके द्वारा इसे अन्य तरीके से पुनः परिभाषित किया गया।
                महादेवी ने समस्त सांसारिक बातों को मिथ्या माना एवं एक आलौकिक संबंध के लिए इन सारी मिथ्याओं को अस्विकृत किया । वे निर्वस्त्र भ्रमण करती थी जिसके कारण उन्हें समाज में चरित्रहीन एवं कुलटा स्त्री के रूप में देखा जाता था । वे स्त्री समाज में असमंजस का केन्द्र थी । अपने आप को सन्त बनाने का निर्णय लेकर भी अक्क महादेवी समाज के कई परंपराओं को एक स्तर पर तोड़ती हैं । धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के सन्त न बनने की आज्ञा के बावजूद वे सन्त बनी परंतु वे वी भी शिव के प्रति एक पतिव्रता की धारणा लिए अनजाने में ही विधवाओं के लिए बनाये गए सारे नियमों का पालन करतीं रहीं । वे निर्भय होकर अपने काव्यों में कहती हैं कि  संसार के कुछ भी करने पर मैं डरने वाली नहीं हूँ । मैं सूखे पत्ते चबाकर रहूंगी । छूरी की धर पर सोऊंगी । चेन्न मलिल्कार्जुन, तुम मेरा हाथ छोड़कर भाग जाओ तो अपना शरीर एवं प्राण तुमको सौंपकर शुळ रहूंगी । इन वाक्यों से महादेवी की शिव के प्रति अन्यन्य भावना तो झलकती ही है पर साथ ही सती के जिस लौकिक रूप की वे भत्सर्ना करती हैं वही अलौकिक शक्ति के लिए अपने शरीर को भस्मीभूत करने से भी वे नहीं हिचकती जान पड़ती हैं । अर्थात् लौकिक संसार में वे जिस प्रधानता को अस्वीकार कर रही थीं वहीं अलौकिक संसार के सन्दर्भ में वे पितृसत्तात्मक मूल्यों के तहत स्थापित ईश्वर नामक सबसे प्रधान पितृसत्ता की भक्ति भी करती हैं ।
                महादेवी के काव्य भी दो पायदानों पर झूलते हैं । एक तरफ तो वे शिव एवं अपने संबंध को लेकर एक आम स्त्री-पुरूष की धारणा रखती हैं । साथ ही, समाज के प्रति सशक्त विद्रोह भी उनके काव्यों में स्पष्टता दिखाई पड़ता है । उनके वचनों से मालूम होता है कि उन्हें साधना में तिरस्कार एवं लोकनिन्दा का शिकार होना पड़ा । जैसे शुद्रों को तपस्या करने का अधिकार नहीं था वैसे ही स्त्रियों को घर बार छोड़कर भक्ति करने का भी अधिकार नहीं था । समाज में ऊंच नीच का भेद न मानने वाले भक्तों को विरोध का सामना करना पड़ा । उन भक्तों में यदि कोई स्त्री हो विशेषकर अक्कमहादेवी जैसी क्रांतिकारी तो उसे जिस तरह के सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा होगा इसकी स्वतःकल्पना की जा सकती है । महादेवी भी उन समस्त विरोधों को एकमात्र अपने आराध्य देव शिव के लिए झेलती हैं । महादेवी संसार में रहती हैं एवं संसार के भीतर ही विरोध का सामना भी करती हैं । पहाड़ के ऊपर घर बनाया तो लहरों से क्या करना ? बाजार के भीतर घर बनाया तो कोलाहल से क्या डरना जैसे शब्दों से उनका विरोध तो झलकता है परन्तु अन्ततः यह सारा विरोध लौकिक जगत के ऊपर विद्यमान शिव नामक अलौकिक पितृसत्तात्मक शक्ति में समाहित हो जाता है ।
                इसी प्रकार महादेवी ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान अनेक विसंगतियों के प्रति भी अपना विरोध प्रकट किया । धर्म और यौनता तथा धर्म एवं जाति के प्रश्नों पर भी अक्क महादेवी ने काफी आक्रामक तेवर दिखाया । उनकी दृष्टि में उनके प्रति चेन्नमल्लिकार्जुन के अलावा संसार में कोई पुरूष ही नहीं जिसे वे वरण कर सकें । उनका यह वकतव्य ही तत्कालीन सामाजिक एवं पारंपरिक व्यवस्था के प्रति उनके अति आक्रामक सोच का परिचायक है । वे सांसारिक पति के अस्तित्व को ही पूर्णतः अस्विकृत करती है । साथ ही अक्कमहादेवी कुल तथा परिवार की मर्यादा को भी अस्वीकार करती हैं । उनके इस अस्वीकृति के पीछे सामाजिक संरचना भी ध्वस्त होती है जो कही न कहीं से इस परिवार नामक संस्था का उद्गम स्थल है ।
   महादेवी ने उन समस्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थिति के मध्य अपने लिए एक महत्वपूर्ण भूमि भी तैयार की एंव एक भक्त कवि के रूप में प्रसिद्ध भी हुईं । सवाल यह है कि क्या महादेवी ने यह खण्डन किसी साधारण मनुष्य के लिए किया होता तो वे इतनी पूजनीया एवं प्रसिद्ध होती जितनी वर्तमान समय में हैं ? संभवतः नहीं, क्योंकि आम जनता ने उनके सारे उल्लंघनों को इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे सारी सीमाओं का उल्लंघन ईश्वर नामक उस परम सता के लिए कर रहीं थीं । इसलिए वही धार्मिक मान्यतायें उन्हें सशक्त भी कर रहीं थी तथा स्व के लिए संघर्ष के लिए जो शक्ति मिल रही थी वह भी उन्हें धार्मिक स्तर पर ही मिल रही थी । सारांश यह की इस आन्दोलन में पितृसता ने बतौर सिद्धान्त अपने आप को मूलरुप में स्थापित किया । जिसका माध्यम अनजाने में ही अक्कमहादेवी भी बनीं । परन्तु इसके बावजूद भी अक्क महादेवी जैसी भक्त महिलाओं का तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में हस्तक्षेप एक सकारात्मक हस्तक्षेप ही कहा जा सकता है जो निश्चय ही प्रशंसनीय है ।
1. सूजी थारु एण्ड केललितावुमेन राइटिंग इन इण्डियाऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प नई    दिल्ली, 199                                                  - - सुप्रिया पाठक 


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