Tuesday, 3 February 2015

नारीवाद (Feminisms )


  नारीवाद एक राजनीतिक विचार है जो यह मानता है कि स्त्रियां भी मनुष्य हैं।
नारीवाद  शब्द का उदय फ्रेंच शब्द फेमिनिस्मे  से 19 वीं सदी के दौर में हुआ। उस समय इस शब्द का प्रयोग पुरूष के शरीर में स्त्री गुणों के आ जाने अथवा स्त्री में पुरूषोचित व्यवहार के होने के सन्दर्भ में किया जाता था। 20 वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में इस शब्द क प्रयोग कुछ महिलाओं के समूह को संबोधित करने के लिए किया गया जो स्त्रियों की एकता, मातृत्व के रहस्यों तथा स्त्रियों की पवित्रता इत्यादि मुद्दो पर एकजुट हुई थीं। बहुत जल्द ही इस शब्द का राजनीतिक रूप से प्रयोग उन प्रतिबद्ध महिला समूहों के लिए किया जाने लगा जो स्त्रियां की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रही थी। उनकी इस बात में गहरी आस्था थी कि स्त्रियां भी मुनष्य हैं।
बाद में इस शब्द का प्रयोग हर उस व्यक्ति के लिए किया जाने लगा जो यह मानते थे कि स्त्रियां अपनी जैविकीय भिन्नता के कारण शोषण झेलती हैं और उन्हें कम से कम कानून की दृष्टि में औपचारिक तौर पर समानता दिए जाने की जरूरत है। इसके बावजूद की यह हलिया विकसित किया गया शब्द हैं, 18 वीं सदी के कई लेखकों एवं चिंतकों जैसे मेरी वुल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, बेट्टी फ्रायडन इत्यादि को उनके उस दौर में स्त्री प्रश्नों के इर्द-गिर्द विमर्श करने के कारण नारीवादी माना जाता है। 
सभी नारीवादी चिंतक एवं लेखक इस शब्द के प्रयोग के पहले से इस कल्पना को जीते आये हैं कि एक दिन एक ऐसी दुनिया होगी जहाँ स्त्रियां अपनी व्यक्तिगत क्षमता को पहचान सकेंगी। इसकी रूपरेखा बनाते हुए कुछ विचारों ने इसे अवधारणात्मक रूप भी प्रदान किया। हालांकि लम्बे समय तक नारीवादी ज्ञान को अनौपचारिक तथा अवैध ज्ञान समझा जाता रहा। आधुनिक नारीवादियों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य था कि वे नारीवादी विचारों को स्त्रियों के व्यापक समूहों के बीच प्रसारित करते हुए उसके प्रति आस्था पैदा करें। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण था कि कई स्त्रियां विभिन्न कारणों से स्वयं का नारीवादी कहलाना पसंद नहीं करती थी।
                   यह भी सत्य था कि कोई भी स्त्री जो स्वयं को नारीवादी कहलाना पसंद करे उसकी अनिवार्यतः एक ही विचार में आस्था हो,यह भी आवश्यक नहीं। मतों के इस वैभिन्य को एक ही समग्र विचारधारा में समाहित करना लगभग असंभव है। इसलिए इसके अच्छे-बूरे अनेक कारणों की वजह से नारीवादशब्द का बहुवाचिक तथा बहुसन्दर्भिक प्रयोग अनिवार्य हो गया  इसलिए 1980 के दशक में नारीवाद का विभिन्न धाराओं में बंट जाना एक सामान्य सी बात थी। हालांकि नारीवादी की सभी धाराएं समाज में हो रहे स्त्री शोषण को समाप्त करने के मुख्य लक्ष्य पर एकमत थीं । परंतु उन्होंने इस समस्या को हमेशा एक ही दर्शन तथा राजनीतिक आधार पर नहीं देखा। इस बात पर भी आम सहमति है कि नारीवादी विरासत में इस प्रकार की वैचारिक विविधताओं तथा विभेदों ने उसके सैद्धांतिक धरातल को और भी समृद्ध किया। अतः यह कहा जा सकता है कि  कि सभी धाराओं के नारीवादी इस बात से सहमत है कि स्त्रियां अपनी लैंगिक पहचान के कारण सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को झेलती हैं और वे सभी इस व्यवस्था को चुनौती देने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका लक्ष्य एक है सिर्फ उसे व्याख्यायित करने एवं उसतक पहुँचने की प्रविधि में विविधता है। अर्थात् नारीवाद’  एक शब्द के रूप में विभिन्नताओं का समारोह है। अधिकतर नारीवादी चिंतक विचारों के इस वैविध्य को एक स्वस्थ विमर्श के प्रतीक के रूप में देखते हैं जबकि कई नारीवादी आलोचक इसे नारीवाद में अन्तनिर्हित कमजोरियों मानते हैं जिसके कारण इस विचार के तार्किक पहलू कमजोर पडे  हैं। कई आलोचक इस विखण्डन को आधुनिक नारीवाद के साथ  भी जोड़ कर देखते हैं। नारीवादियों का उदय एवं उनका बौद्धिक विकास सदैव विविध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में हुआ हैं एवं उन्होंने हमेशा अपनी भौगोलिक स्थिति एवं समय के अनुसार ही मुद्दों को उठाया है।
                इस तथ्य के बावजूद कि नारीवाद व्यक्तिगत राजनीतिक दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करता है। (संभवतः यह प्रवृति 21 वीं सदी में ज्यादा स्पष्ट हुई है) आधुनिक नारीवादी सिद्दांत इस पहलू को खारिज   करता है। उदारवादी नारीवाद पाश्चात्य समाजों मे प्रबोधनकाल के दौरान उदारवादी विचारों में विभिन्नता को रेखांकित करता है तथा जनतांत्रिक व्यवस्था के अन्दर ही राजनैतिक प्रक्रियाओं के माध्यम स्त्रियों की सामाजिक अधीनता की स्थिति को उठाते हुए उनके समाधान को ढुंढता है। उदारवादियों के लिए मुख्य लड़ाई शिक्षा तक पहुँच है। मेरी वुल्सटनक्रफ्ट के अनुसार यदि स्त्री-पुरूष को समान शिक्षा दी जाए तो समाज में भी वे समान अवसर प्राप्त कर सकेंगी । उदारवादी सामान्यतः रेडिकल तथा समाजवादियों द्वारा किये जा रहे क्रांति तथा मुक्ति जैसे शब्दों का प्रयोग अपनी राजनीति को स्पष्ट करने के लिए नहीं करते। उनकी यह आस्था हैं कि जनतंत्र प्राकृतिक रूप से स्त्री-पुरूष समानता को मानता है। उदारवादी दृष्टिकोण नारीवाद को स्थापित व्यवस्था में एक व्यावहारिक विवेक के रूप में व्याख्यायित करता है। यह व्याख्या उन अधिकांश स्त्रियों पर लागू होती है जो स्वयं को नारीवादी मानती हैं परन्तु वे समाजिक यथास्थिति की व्यवस्था को पूर्णतः उलट देने की पक्षधर नहीं है। वे समाज में स्त्रियों की स्थिति को बेहतर करने के लिए व्यवस्था परिवर्तन की हिमायती नहीं है बल्कि स्थापित व्यवस्था में कानूनी परिवर्तनों के माध्यम से समानता की राह तलाशती हैं। साथ ही,  उदारवादी इस बात से भी सहमत हैं कि स्त्री एवं पुरूष अपनी प्रदत भूमिकाओं को निभाते हुए घर एवं बाहर के विभाजन को बनाएं रखें। ताकि श्रम के लैंगिक विभाजन की यह व्यवस्था बनी रहे।
                समाजवादी या मार्क्सवादी नारीवाद स्त्री की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन को औद्योगिक पूंजीवाद को उलट देने तथा उत्पादन के साधनों के साथ मजदूर के बदले संबंधों के सन्दर्भ में देखता है। उनके अनुसार क्रांति ही एकमात्र उपाय है। हालांकि गुजरते समय के साथ समाजवादी नारीवादी इस प्रस्थापना पर और आग्रही हुए हैं कि समाजवादी क्रांति के उपरांत महिलाओं के जीवन में निश्चित रूप से परिवर्तन होंगे। वे भी जेंडर विभेद को अत्यंत आग्रही विचार के साथ देखते हैं। फिर भी, समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवादी हमेशा इस बात से सचेत हैं कि किस प्रकार समाज को वर्ग, जाति तथा नस्ल के आधार पर विभाजित किया गया है। इस विभाजन को बनाए रखने में जेंडर की अहम भूमिका होती हे। समाज की ये सभी संरचनाएं एक दूसरे के साथ अन्तरनिहित हैं तथा समान रूप से विनाशकारी हे। उदारवादियों के साथ साम्य बनाते हुए समाजवादी नारीवाद पुरूष को इन सबके साथ जोड़ कर देखते हैं। इसलिए किसी भी प्रकार के परिवर्तनकारी आंदोलन में पुरूषों की भूमिका उनकी दृष्टि में महत्वपूर्ण है।
                रेडिकल नारीवाद की प्रारंभिक प्रस्थापनाओं में भी यह पूर्वानुमान निहित था कि यदि पुरूष समस्याओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार है तो उसके समाधान में भी वह बराबर की भूमिका निभाएगा। हालांकि रेडिकल नारीवाद को सामान्यतः जन साधारण में प्रचलित चेतनाओं तथा पुरूष विरोधी रूख के लिए जाना जाता है। रेडिकल नारीवादीयों का उदय विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में 1960 के दशक में उभरे विभिन्न वामपंथी तथा नागरिक अधिकार आंदोलन के दौर में हुआ। उनकी राजनीति व्यापक तौर पर रेडिकल वामपंथ की थी पर वे रेडिकल वामपंथी आन्दोलनकारियों के वर्चस्वकारी पौरूषपूर्ण व्यवहार से अत्यंत विरक्त हो गई और स्त्री मुक्ति आंदोलनों को अलग से संगठित करना शुरू किया। ताकि पुरूष केन्द्रित ज्ञान एवं राजनीति से परे स्त्रियों के शोषण को समझा जा सकें। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि स्त्री केन्द्रित राजनीति ही स्त्रियों के लिए समाज में स्थान बनाने की युक्ति निकाल सकती है। रेडिकल राजनीति जो नव वामपंथी तथा नागरिक आंदोलनों के अनुभवों से सीख लेकर उभरा था, एक ऐसा राजनीतिक संगठन चाहता था जो पुरूषवाद की विकृति से मुक्त हो। उनकी कई धारणाओं को नारीवाद की अन्य धाराओं तथा सामानय जन में गलत ढंग से पेश किया गया तथा उन्हें पुरूष विरोधी एवं समलैंगिकता की प्रबल समर्थक के रूप में प्रचारित किया गया। यह भी माना गया कि वे जिस तरह की दुनिया को रचना चाहती थी उसमें वे पुरूष सत्ता को आमूलचूल रूप से परिवर्तित करना चाहती थी। व्यवस्था के इस उलटफेर के विचार को कई नारीवादी धाराओं ने स्वीकार नहीं किया।
                नारीवादी समूहों ने हमेशा अश्वेत, कामगार , समलैंगिक तथा विभिन्न यौनिक पहचान वाली स्त्रियों को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया हैं अभी भी अस्मिताओं के संघर्ष तथा अपनी तकलीफों को भिन्न प्रकार से अभिव्यक्ति देने की प्रक्रिया लगातार जारी है। उदाहरणस्वरूप 1979 में कॉमबाही रिवर कलेक्टिव  ने अश्वेत नारीवादी घोषणा पत्र को प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने एक स्तर पर प्रचलित नारीवाद के साथ होने का अहसास कराने के साथ-साथ यह भी जाहिर किया कि सिर्फ स्त्रियों के शोषण को पृथक तरीके से देखने के बजाए अंततः नस्ल, वर्ग तथा लैंगिक प्रशिक्षणों के साथ उसके जुडाव को भी समझने की जरुरत है जिसे समझे बिना शोषण को ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार के हाशिए पर होने के अहसास ने नारीवादी सिद्धांत में  1970 तथा 1980 के दशक में नयी अस्मिताअें के पैदा होने की जमीन तैयार की जिसके फलस्वरुप अश्वे तथा दलित नारीवाद जैसे विचारों का जन्म हुआ।  
                उत्तर आधुनिक तथा उत्तर संरचनावादी हस्तक्षेपों ने इस विचारधारा के वैविध्य को और बढ़ाया जिससे नारीवादी को समझने की एक नई दृष्टि मिलों। उनका मानना था कि शोषक/शोषित के सत्ता सिद्धांतों को व्यापक प्रश्नों के दायरे में समस्या के रूप में देखने पर यह पता चलता है कि किस प्रकार सामाजिक विमर्श में सत्य तथा उसके अर्थ को पैदा किया जाता है। उन्होंने बेहतरीन तरीके से सत्ता के साथ शोषण के अनिवार्यतः जुडे होने की व्याख्या की। इन सभी वैचारिक विमर्शों के उपरांत नारीवाद एक शब्द के रूप में अपने अनेक अर्थो एवं मत-मतांतरों के साथ हमारे सामने है। 
-- सुप्रिया पाठक
सन्दर्भ:
·         जेन पिल्चर तथा इमेल्दा वेलेहम,की कानसेप्ट्स इन जेंडर स्टडीज, सेज प्रकाशन,2004
·         सराह गांबले, द रुटलेज कमपेनियन ओफ फेमिनिस्म एण्ड पोस्ट फेमिनिज्म,1998



1 comment:

  1. आभार । विश्लेशणात्मक एंव बेहतरीन लेख। समाजवाद व उदारवादी नारीवाद के दृष्टिकोण में विभेद करने में अस्पष्टता महसूस किया। धन्यवाद ।

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